Tuesday 30 August 2016

वेद किसी को नहीं मानता

पुराने समय में एक असुर हुआ था जो की लोगों को वेद विरुद्ध मार्ग मेपृवत्त करता था। वह नीति को अनीति और अनीति को नीति बताता था। वह धर्म को पाखंड और पाखंड को धर्म बताता था। वह कहता था की न कोई स्वर्ग है और न ही कोई अपवर्ग है। वह खता थकी जो इन्द्रियों द्वारा अनुभूत किया जा सकता है वही सत्य है। वह ब्रम्हा को रचयिता नहीं मानता था ,वह विष्णु को पालनहार नहीं मानता था वह शिव को संहारकर्ता नहीं मानता था। वह पूजा जप तप श्राद्ध में विघ्न उत्पन्न करता था। वह कहता श्राद्ध का भोजन पितरों को मिल जाता है तो फिर यात्रा में गए हुए व्यक्ति तो अपने साथ खाद्य सामग्री ले जाने का क्या प्रयोजन ? वह परशुराम ,राम ,कृष्ण आदि को मानवमात्र कहता था और अन्य अवतारों को मूर्खों की कल्पना कहता था। उसने इसी भांति के छल प्रपंच करके उनसे कमजोर निष्ठां और दुर्बुद्धि से युक्त बहुत से व्यक्तियों को वेद मार्ग के विरुद्ध कर दिया और फिर उन वेद विरुद्ध व्यक्तियों ने अपने ही जैसे दूसरे बहुत से व्यक्तियों को भी वेद विरुद्ध कर दिया और इस भाँती वेदमार्ग से च्युत हुए वे सभी व्यक्ति अपने धन ,परिवार ,समाज औअर राज्य सहित इसी प्रकार समाप्त हो गए जैसे की दलदल में फँसी हुई गाय डूब जाती है।

श्वेत वराह कल्प के वैससवत मन्वन्तर के अट्ठाइसवें कलियीं के पांच सहस्त्र वर्ष बीतने के बाद वो असुर पुनः उत्पन्न हुआ था और इस बार उसका नाम भी छल पूर्ण था , उसका नाम दयानंद था।

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