Wednesday 31 August 2016

आर्य समाज का पर्दाफाश

 शरणम in आर्यसमाज एवं नास्तिको का पर्दाफाशनास्तिको एवं आर्यसमाज का पर्दाफाश 

वेदों के अर्थ का अनर्थ करने वाले तीन मूल कारक हुए हैं जिनके कारण आर्य समाज का निर्माण हुआ!!!
1. मैक्स म्युलर (1823-1900)
2. दयानंद सरस्वती (1824-1883)
3. राल्फ टी एच ग्रिफ्थ (1826-1906)
दयानंद का जन्म ब्राहमण परिवार में हुआ अर्थात पिताजी सवर्ण ज्ञानी थे वेदों का ज्ञान भी होगा या पुराणों का किन्तु वे हिन्दू थे और वे मंदिर में पूजा किया करते थे। लेकिन दयानंद ने 1838 में मात्र 15 साल की उम्र में शिवरात्रि पर देखा कि शंकर जी की मूर्ति के पास रखे प्रसाद को एक चूहा खा रहा है लेकिन शंकर जी अपने प्रसाद की भी रक्षा नहीं कर सके इसलिए दयानंद को लगा कि जो शंकर अपने चढ़ाए प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकता वो विश्व की रक्षा कैसे करेगा अर्थात दयानंद ने निर्णय लिया कि शंकर जी भगवान नहीं हैं और तब से शंकर जी की पूजा करनी बंद कर दी और अपने ही पिता के साथ बहस की और तर्क कुतर्क के साथ ये निर्णय लिया कि हमें ऐसे असहाय ईश्वर की पूजा नहीं करनी चाहिए। यहाँ से मूर्ति पूजा का विरोध आरम्भ हुआ।
दयानंद सरस्वती का असली नाम मूलशंकर था, शंकर से विरोध के कारण दयानंद ने अपना नाम भी बदल कर दयानंद सरस्वती रख लिया।
दयानंद पूरी तरह से नास्तिक हो चुके थे ईश्वर में या ईश्वर के किसी अवतार में कोई विश्वास ही नहीं रह गया। यहाँ तक कि अपने पिता को भी गलत साबित करने के लिए उनसे कई बार बहस की। दयानंद के इस व्यक्तित्व और नास्तिकता के कारण माता पिता चिंता में रहने लगे थे।
कुछ समय पश्चात अपनी छोटी बहन और चाचा की असमयिक मृत्यु के कारण मानसिक तौर पर जन्म और मृत्यु के विषय को गंभीरता से लेते हुए ऐसे ऐसे प्रश्न करने लगे जिसके जवाब पिता के पास भी नहीं थे और न ही किसी अन्य के पास थे। जैसे कि उनको मरने से न बचाने का कारण मृत्यु टालने के उपाय आदि। दयानंद की इस स्थिति के कारण माता पिता ने निर्णय किया कि अब दयानंद का विवाह करा देना चाहिए शायद कुछ सोच में अंतर आये। लेकिन दयानंद को अपनी सोच की खोज विवाह से ज्यादा उचित लग रही थी। इसलिए 1846 में जब उनकी उम्र 23 साल की थी घर छोड़ दिया। आर्य समाजी कहते हैं कि कम उम्र में विवाह का निर्णय लिया था पिता ने किन्तु सत्य तो ये है कि 23 साल की उम्र कम नहीं होती आज के समय के अनुसार भी विवाह के लिए उत्तम मानी जाती है।
घर से निकलकर कई जगहों पर यात्रा की और यात्रा करते हुए वह गुरु विरजानन्द के पास पहुंचे। गुरुवर ने उन्हें वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा-विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। परंतु गुरुवार बुद्धि में बदलाव न कर पाए और दयानंद ने पूजा पाठ का विरोध करना पुनः आरम्भ कर दिया। गुरु ने कहा कि मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ किन्तु उन्होंने उनकी विद्या ज्ञान ईश्वर भक्ति को मिटाना आरम्भ कर दिया।
कई जगहों पर ईश्वर की पूजा का विरोध किया और पूजा पाठ को पाखण्ड बताया और लोगों को पूजा पाठ से रोकने हेतु प्रयास किया। बहुत से नास्तिक लोग दयानंद के साथ हो लिए और सभी नास्तिकों ने अपना एक दल बनाया। 1866 में हरिद्वार पहुंचकर कुंभ के अवसर पर पाखण्ड खण्डिनी पताका फहराई। गंगा स्नान आदि जैसे कर्मकांड भी पाखण्ड बताकर विरोध किया और लोगों को पूजा पाठ से रोका।
[वेदों को छोड़ कर कोई अन्य धर्मग्रन्थ प्रमाण नहीं है। रामायण,महाभारत गीता पुराण आदि सारे धर्म ग्रन्थ नहीं हैं।] – इस का प्रचार करने के लिए दयानंद ने सारे देश का दौरा करना प्रारंभ किया। ये समय था जब हमारे देश में संस्कृत भाषा नाम मात्र को ही थी। वे हिंदी भाषा नहीं बोलते बल्कि संस्कृत में तीव्र प्रवाह से बोलते थे। इस कारण लोगों को कुछ ज्यादा ही ज्ञानी लगते थे। साथ ही वे तर्क लगाने में बहुत तेज थे या कहें कि कुछ ज्यादा ही नास्तिकता के कारण तर्क कुतर्क कुछ ज्यादा ही करते थे और सभी जानते हैं कि कुतर्कों का जवाब नहीं होता।
संस्कृत ही बोलने के कारण बहुत कम लोग उनकी बात समझते थे अज्ञानी लोग उन्हें संस्कृत में तेज बोलने के कारण महाज्ञानी समझते थे। लेकिन उनकी बात का मूल नहीं समझ पाते थे। इसलिए उन्हें किसी ने हिंदी में लोगों से बात करने की सलाह दी क्योंकि कलकत्ता बम्बई आदि जिन स्थानों पर दयानंद जाते थे वहां संस्कृत के लोग नहीं बल्कि वहां की क्षेत्रीय भाषा वाले लोग अधिक होते थे जैसे कि कलकत्ता में बंगाली मुम्बई में मराठी भाषा जिनमे इतना अंतर है कि दोनों आपस में भी एक दुसरे की बात नहीं समझ सकते। इस कारण बहुत से लोग जिनके आगे तर्क कुतर्क करके दयानंद खुद और उनके अंधभक्त उनको महाविद्वान समझने लगे किन्तु फिर भी लोगों को कलकत्ता में एकमत नहीं कर सके दाल न गलने के कारण मुम्बई आ गए। इसके पश्चात् दयानंद ने हिंदी भाषा का उपयोग आरम्भ किया।
मुम्बई आकर दयानंद ने 1875 में अपनी सत्यार्थ प्रकाश किताब हिंदी में लिखी और आर्य समाज की स्थापना की।
मुम्बई में उनके साथ प्रार्थना समाज वालों ने भी विचार-विमर्श किया। किन्तु यह समाज तो ब्राह्मो समाज का ही मुम्बई संस्करण था। अतएव स्वामी जी से इस समाज के लोग भी एकमत नहीं हो सके। तब दयानंद यहाँ भी अपनी दाल न गलते देखकर दिल्ली प्रस्थान कर दिए।
तीन वर्ष तक मुम्बई में प्रचार में असफल होने पर मुंबई से लौट कर 1878 में दयानंद इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) आए। वहां उन्होंने सत्यानुसन्धान के लिए ईसाई, मुसलमान और हिन्दू पण्डितों की एक सभा बुलायी। किन्तु दो दिनों के विचार-विमर्श के बाद भी लोग किसी निष्कर्ष पर नहीं आ सके। यहाँ भी दयानंद किसी को एकमत नहीं कर पाए।
इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) से स्वामी जी पंजाब गए। पंजाब में उनके प्रति बहुत उत्साह जाग्रत हुआ और सारे प्रान्त में आर्यसमाज की शाखाएं खुलने लगीं। तभी से पंजाब आर्यसमाजियों का प्रधान गढ़ रहा है।
दयानंद ये भी समझ गए कि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र हैं तथा फल भोगने में परतन्त्र हैं। जीवन मृत्यु किसी के वश में नहीं है। दयानन्द सभी धर्मानुयायियों को एक मञ्च पर लाकर एकता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे किन्तु भाव केवल सभी के पूजा पाठ कर्म कांडों को अन्धविश्वास और पाखण्ड बताकर केवल अपनी सोच को ही उनपर सवार करने से था।
विश्व भर के वेदों के विद्वान जो वेद ज्ञान के प्रवाह से वेदमंत्रों से ईश्वर की पूजा पाठ किया करते थे दयानंद अपनी 23 वर्ष की उम्र में घर से निकलकर भटक कर १८५७ की क्रान्ति के दो वर्ष बाद स्वामी जी ने स्वामी विरजानन्द को अपना गुरु बनाया और उनसे दीक्षा ली। स्वामी विरजानन्द के आश्रम में रहकर उन्होंने वेदों का अध्ययन किया। 1859 में 36 वर्ष की आयु में वेदज्ञान प्राप्त करके भी अपनी मानसिकता नहीं बदल पाए और दयानंद की यही पूजा पाठ को पाखंड कहकर विरोध करने की सोच सदैव हावी रही।
सदैव पूजा पाठ कर्म कांडों का ही विरोध किया। लोगों को पूजा पाठ से रोकने का प्रयास किया।
इस सभी के बीच में एक बात ध्यान देने वाली है कि दयानंदी वंशज कहते हैं कि दयानंद ने 23 वर्ष में वेद भाष्य लिखे लेकिन सत्य ये है कि इस समय वे स्वयं अपने गुरु के पास पाणिनी व्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग का अध्ययन किया। संस्कृत को इस प्रकार उत्तम प्रकार से सीखने में कई साल लगे केवल शिक्षा प्राप्त करने में न कि अपना अध्ययन करने में।
मैक्स म्युलर ने अपनी प्रति 1874 में प्रदर्शित की इसके एक वर्ष पश्चात दयानंद ने अपन वेद भाष्य प्रकाशित किया!!!
मैक्स म्युलर और दयानंद की वेद भाष्य्करण में कुछ समानताएं हैं जो बाकी वेद ग्रंथों से समानता नहीं रखतीं। और इसके बाद टी एच ग्रिफ्थ ने भी वेद भाष्य को लिखा जो कि उन्होंने स्वयं ही कहा है कि वो मैक्स म्युलर से प्रेरित है।
इन तीनों के भाष्य में सभी/ज्यादातर मंत्र संख्या और उनका अर्थ एक सामान है। यह संभव है कि दयानंद ने मैक्स म्युलर का वेद भाष्य पढ़ा और उसको अपने अनुसार हिंदी में लिखा जो कि आज दयानंद वेद नाम से प्रचलित है। किन्तु यह मूल वेद प्रति नहीं है बल्कि केवल अर्थ का अनर्थ है। जिसमे कई मंत्रों को आधा अधुरा करके लिखा गया है। जिससे अर्थ का समूल नहीं व्यक्त होता बल्कि अलग ही प्रकार से अर्थ को दर्शाने का प्रयास होता है। कई मंत्र ऐसे लिखे गए हैं जो इनके वेद भाष्यों में हैं वो अन्य वेद ग्रंथों में नहीं हैं।
आप कोई मंत्र का संख्या काण्ड अध्याय भी दयानंद वंशजों से पूछ लें तो ये अपनी मानसिकता पर आ जाते हैं किन्तु सही जवाब नहीं देते। क्योंकि ये स्वयं भी जानते हैं कि ये जो दयानंद कृत पुस्तकें पढ़ते हैं वे वेद नहीं हैं। केवल छलावा हैं लोगों को वेदों के नाम पर अपनी शिक्षा देने का और अपनी सोच को वेदों के अनुसार न ढालकर लोगों में अपनी सोच के अनुसार वेद ज्ञान को ढाल दिया है। अपने अनुसार इन्होने अर्थ बना रखे हैं अपने अनुसार उनके मंत्र संख्या तय कर दिए!!!
ये जानकारी है कि किसने कब लिखा और किसने कब ये देखिये।
मैक्स म्युलर ने 1874 में वेद लिखा। जिसके 26 साल बाद मृत्यु को प्राप्त हुए।
दयानंद ने 1875 में सत्यार्थ प्रकाश लिखी जिसके आठ साल बाद मृत्यु को प्राप्त हुए।
राल्फ टी एच ग्रिफ्थ ने कुछ कुछ ही साल में सारे वेदों को ट्रांसलेट कर दिया! और अंतिम ट्रांसलेशन के 7 साल बाद मृत्यु को प्राप्त हुए।
Hymns of the Rigveda (published 1889) इसके कुल 4 साल में ही सामवेद का पूर्ण अध्ययन और ट्रांसलेशन!!!
Hymns of the Samaveda (published 1893) इसके कुल तीन साल में ही अथर्ववेद का पूर्ण ट्रांसलेशन!!!!!
Hymns of the Atharvaveda (published 1896) इसके बाद तीन साल में ही यजुर्वेद का ट्रांसलेशन!!!!
The Texts of the Yajurveda (published 1899)
सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि ये ख्याल सबसे पहले लिखने वाले मैक्स म्युलर और अंत में लिखने वाले राल्फ टी एच ग्रिफ्थ के भाष्य अपने आप में एक सबूत हैं कि इनके मध्य में लिखा गया दयानंद का भाष्य भी इन्हीं से प्रेरित था न कि किसी और से। ये सत्य ज्ञान नहीं बल्कि अंग्रेजों की वो सोच थी जिसपर अंग्रेज हमें चलाना चाहते थे ताकि भारत से पूजा पाठ धार्मिक कर्म काण्ड बंद हों और यही बात दयानंद की सोच में भी थी कि “जो ईश्वर अपने चढ़ाए प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकता वो विश्व की रक्षा कैसे करेगा” तो यहाँ दयानंद को अपने भाष्य लिखने के लिए अंग्रेजों से प्रेरणा मिली जिसके कारण आज तक वेदों के अर्थ का अनर्थ होता आ रहा है।
जाने कब तक ऐसे ही ईसाइयों यहूदियों और इस्लामियों के बदले गए भाष्यों को पढ़ते रहेंगे हम???
चाहे कोई भी अन्य सम्प्रदाय हो सभी हमें हमारे पूजा पाठ से दूर करना चाहते हैं और अनेक प्रकार के प्रयास करते हैं। हमें समझना चाहिए।

वेद ईश्वर प्रदत्त यानी दी हुई है

कहते है वेद ईश्वर प्रदत यानि दी हुई है !
किस तरह से दी एक एक अलग ही सवाल पैदा करता है कयूकि देने की प्रक्रिया ईश्वर ने नहीं बताई , विद्द्वान कहते है की श्रुति यानि बोल के दिया और ऋषियो ने यद् कर लिया ,और वेसे ही जबानी आगे बढ़ाते रहे !
यहाँ पे सवाल पैदा होता है की ईश्वर ने जैसे दिया क्या उसी प्रकार ऋषियो ने भी आगे बढ़ाया शब्द by शब्द ?
क्या इस सम्भव है , आज एक विद्द्वान जब कोई भले ही ओ  उसकी लिखी हुई हे केउ न हो ओ उसे शब्द के शब्द नहीं पढ़ सकता जरूर कुछ शब्द इधर उधर होना सम्भव है ?
वेदों के मामले में भी ऐसा ही हुआ जिसके कारन आज हजारो बिरोधाभास पाया जाता है वेदों में!
क्या वैदिक ईश्वर को इस बात का ज्ञान नहीं था ?
आज वेदों की लिखित किताब कोई लिपि नहीं मिलती है जो ये बात साबित करे की असली वेद कौन सा है , अगर वैदिक ईश्वर ने इस बात का ज्ञान ऋषियो को दिया होता तो आज एक असली किताब होती , आज असली  किताब  न होने के कारन लोग अपने मन मुताबिक उसका अनुवाद किया और उसे ही सत्य माना , जैसे आर्य समाज का अनुवाद हिन्दू समाज के अनुवाद से नहीं मिलता और हिन्दू का अंग्रेजो के!
जिसके कारन आज हजारो बुराइय फैली हुई है !
आज ऋग्वेद का पहला मंत्र पढ़ा तो एक सवाल पैदा हुआ की जो वैदिक ईश्वर सबका मालिक बताता है क्या ओ भी किसी की स्तुति वंदना इबादत कर सकता है ?
ऋग्वेद मंडल १-सूक्त १ मंत्र १= हम अग्नि देव की स्तुति करते है (कैसे अग्निदेव )जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म )के पुरोहित ( आगे बढाने वाले ) देवता अनुमोदन देने वाले ) शृत्विज ( समयनाकूल यज्ञ का सम्मपदं करने वाले )होता (देवो का आह्वाहन करने वाले ) और याजको को रत्नों से ( यज्ञ के लाभो से )बिभूषित करने वाले है !

Tuesday 30 August 2016

Chutiyapa नंबर वन

सत्यार्थ प्रकाश सप्तम संमुल्लास पेज नंबर १६९ मे दयानन्द लिखते है ।
अग्नेर्वा ऋग्वेदो जायते वायोर्यजुर्वेद: सुर्यात्सामवेद: ॥
(चुतियापा नम्बर १) स्वामी जी इसका अर्थ लिखते है की
"प्रथम अर्थात सृष्टि के आदि मे परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा ऋषियों के आत्माओं मे एक-एक वेद का प्रकाश किया ।"
अब जरा इस धुर्त के भाष्य पर एक नजर डालकर देखें दयानंद ने इस श्लोक का जो भाष्य किया है वही दयानंद को मूर्ख और धुर्त सिद्ध करने के लिए काफी है
इस श्लोक में अग्नि देव से ऋग्वेद, वायुदेव से यजुर्वेद और सूर्य देव से सामवेद ये तो समझ में आता है क्योंकि सृष्टि के आदि में ३ ही वेद थे और ये श्लोक भी यही बताता है (इससे प्रकट होता है कि आरम्भ में ३ ही वेद थे । समय व्यतीत होने के साथ महर्षि अंगिरा ने वेदों के अभिचार और अनुष्ठान वाले कुछ मंत्रों को अलग करके चतुर्थ वेद की रचना की जिसका नाम अथर्ववेद हुआ।) इसका प्रमाण तो मनुस्मृति में भी मिलता है पर मेरी समझ में ये नहीं आता कि इस धूर्त ने इस श्लोक में अंगिरा और अथर्ववेद कहाँ से निकाला
क्या कोई आर्य समाज का तथाकथित बुद्धिजीवी इस पर प्रकाश डालेगा ???
की दयानंद ने यहाँ पर अंगिरा और अथर्ववेद किस प्रकार जोड़ा ????
अब आइए आगे बढ़ते है और आपको दयानंद की महाचुतियापंति के दर्शन कराते है
प्रश्नकर्ता प्रश्न करता है की
यो वै ब्राह्मणम् विदधाति पूर्वम् यो वै वेदंश्च प्रहिणोति तस्मैं ॥
इस मंत्र मे वो ब्रह्मा जी के हृदय मे किया है फिर अग्निआदि ऋषियो को क्यो कहा ??

(महा चुतियापा नम्बर २) स्वामी जी जवाब देते है ।
ब्रह्मा की आत्मा मे अग्निआदि द्वारा स्थापित कराया देखो मनुस्मृति मे क्या लिखा है -
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्म सनातनम।
दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृग्यजु: समलक्षणम्॥- मनु (१/२३)
धुर्त दयानंद इसका भावार्थ लिखते है की
जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों ऋषियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराये और उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और (तु अर्थात) अंगिरा से ऋग, यजुः, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया।
दयानंद के इस भावार्थ से ये साबित हो जाता है की स्वामी जी केवल मुर्ख ही नही अपितु अव्वल दर्जे के महाधूर्त भी थे ।
या फिर उन्होंने सरासर लोगो को भ्रमित करने का कार्य किया है ( इसकी बात अभी करेंगे )
बढ़ते है थोड़ा आगे
प्रश्नकर्ता आगे पूछता है
"उन चारो ही में वेदों का प्रकाश किया, अन्य में नहीं । इससे ईश्वर पक्षपाती होता है"
(चुतियापा नम्बर ३) स्वामी जी उत्तर देते है
"वो ही चार सब जीवो से अधिक पवित्रात्मा थे , अन्य उनके सदृश नही थे । इसलिए पवित्र विद्या का उन्ही मे प्रकाश किया"
प्रश्नकर्ता आगे कुछ नही कहता है लेकिन मैं पूछना चाहूँगा
की सृष्टि की उत्पत्ति के समय कोई आत्मा सबसे पवित्र कैसे हुई ???
और अन्य उससे कम कैसे ??
स्वामी जी के अनुसार क्या ईश्वर पक्षपाती नही हुआ ???
और सृष्टि के आदि मे जब मनुष्य की उत्त्पत्ति हुई उस वक़्त तो कोई काम, क्रोध, लोभ, मोह, छल इत्यादि भी नही था जबकि पैदा हुआ बच्चा भी पाप पुण्य के बंधन से मुक्त होता है
फिर दयानंद का ये कथन की वो चार ही सबसे अधिक पवित्रात्मा थे क्या ये बेवकूफी भरा नही है ???
मैं आप लोगो से ही पुछता हूँ क्या दयानंद चुतिया नही था। यदि आप कहते है कि नही तो आइए आपको दयानंद की महा चुतियापंति के दर्शन करता हूँ
प्रश्नकर्ता आगे प्रश्न करता है हालांकि बेवकूफी भरा प्रश्न है
" किसी देश की भाषा मे वेदों का प्रकाश ना करके संस्कृत मे ही वेदों का प्रकाश क्यों किया ??"
मानता हु की ये सवाल बेतुका है
परन्तु विश्वास मानिये आर्य समाज के तथाकथित महाभंगी दयानंद ने इसका जो जवाब दिया वो वाकाइ मे इससे भी ज्यादा बेतुका है
(महाचुतियापा नम्बर ४) स्वामी जी कहते है
"जो किसी देश-भाषा में प्रकाश करता तो ईश्वर पक्षपाती होता, क्योंकि जिस देश की भाषा मे प्रकाश करता, उनको सुगमता और विदेशियों को कठिनता वेदों के पढ़ने-पढ़ाने की होती ।
इसलिए संस्कृत ही में प्रकाश किया, जो किसी देश भाषा नही और अन्य सब देशभाषाओं का कारण है । उसी में वेदों का प्रकाश किया ।"
क्या दयानंद का ये जवाब वाकई मे हास्यपद और बेवकूफी भरा नही है ??
मैं समस्त आर्य समाजियों से पूछता हूँ
सृष्टि की उत्पत्ति के समय कितने देश थे ???
और कितनी भाषाए बोली जाती थी ???
जैसा की दयानंद का भी यही मानना था की संस्कृत हर भाषा का कारण है
तो क्या संस्कृत कभी बोली नही जाती थी ???
मतलब साफ है की दयानंद ने लोगो को भ्रमित करने का प्रयास किया है
इसकी पुष्टि भी मैं अभी ही किए देता हूँ ।
जैसा कि दयानंद ने ऊपर लिखा था
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्म सनातनम।
दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृग्यजु : समलक्षणम्॥- मनु (१/२३)
जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों ऋषियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराये और उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और (तु अर्थात) अंगिरा से ऋग, यजुः, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया।
दयानंद ने इस श्लोक के अर्थ का भी उसी प्रकार कबाडा कर रखा है
जैसा कि अन्य श्लोक व मंत्रों के साथ किया है
और उनके इस भावार्थ से साफ साफ पता चलता है की या तो उन्हें संस्कृत का ज्ञान ही नही था या फिर ये सब दयानंद का षडयंत्र था लोगो को भ्रमित कर उनके मस्तिष्क में गलत बाते भर सनातन धर्म को तोडने के लिए ।
अब आइए एक नजर इस श्लोक के शब्दार्थ पर भी डाल लेते है ।
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्म सनातनम।
दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृग्यजु : समलक्षणम्॥- मनु (१/२३)
इसके पश्चात उस (ब्रह्म) - परमात्मा ने ।
(यज्ञसिध्यर्थम्) - यज्ञ सिद्धि हेतु ।
(लक्षणम्) - समान गुण वाले ।
(त्र्यं सनातनम्) - तीनो सनातन देवों और वेदों ।
(अग्निवायुरविभ्यस्तु) - अग्नि, वायु, और सूर्य द्वारा ।
ऋग्यजु:साम् - ऋगवेद, यजुर्वेद और सामवेद को ।
दुदोह - प्रकट किया ।
भावार्थ- इसके पश्चात उस परमात्मा ने यज्ञों की सिद्ध हेतु तीन देवों- अग्नि, वायु और सूर्य द्वारा सनातन तीनों वेदों ऋग्वेद , यजुर्वेद और सामवेद को प्रकट किया॥
अब कोई ये बताए कि इस श्लोक मे अथर्ववेद और ऋषि अंगिरा का उल्लेख कहा है ??
और दयानंद ने जो इसमे बकवास कर रखा है जैसे प्रारम्भ मे ४ ऋषि थे उनमे एक अंगिरा थे इन चारो ने ब्रह्मा को वेद ज्ञान दिया
आइये अब इस धुर्त दयानंद के मुहँ पर सत्य का तमाचा मारते है और मनुस्मृति से ही प्रमाण देकर धूर्त दयानंद को सबके सामने नंगा करते हैं
(प्रमाण नम्बर १)
तदण्डमभवद्धैमं सहस्रांशुसमप्रभम् ।
तस्मिञजज्ञेस्वयंब्रह्मा सर्वलोकपितामहः ॥ मनुस्मृति १/११
प्रकृति मे आरोपित बीज अल्प काल से ही सहस्त्रों सूर्यों के समान चमकीले अंडे के समान प्रकाशयुक्त हो गया और फिर उसी तेज पुंज प्रकाश से सब लोगो के पितामह ब्रह्मा जी प्रकट हुए ।
मनुस्मृति मे साफ शब्दों मे लिखा हुआ है की ब्रह्मा जी की उत्पत्ति सबसे पहले हुई और इस जग के पितामह वही है ।।
(प्रमाण नम्बर २)
आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनव:
ता यदस्यायनं पूर्व तेन नारायण: स्मृत: ।।मनुस्मृति १/१२
अप्त तत्व का एक नाम 'नार' है क्योकि वह नर अर्थात् ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है। ब्रह्म की ब्रह्मा रूप में उत्पत्ति इसी नार से हुई है । इसलिए ब्रह्मा जी का एक नाम 'नारायण' भी है ।।
इन दोनो तथ्यों से साफ साफ पता चलता है की आदि सृष्टि मे मनुस्मृति के आधार पर ब्रह्म की ब्रह्मा रूप में उत्त्पत्ति सर्वप्रथम हुई ।
इन बातो और प्रमाणों के साथ मैं विश्वास से कह सकता हूँ की दयानन्द एक षणयंत्रकारी था सिर्फ अपने व्यक्तिगत स्वार्थ, के लिए वेद मंत्रों और अन्य ग्रंथों आदि के श्लोकों के अर्थ का अनर्थ कर लोगों को भ्रमित करना उसके षडयंत्र का एक हिस्सा था। मैंने अपने जीवन में यहां तक की सम्पूर्ण इतिहास में दयानंद से बड़ा झूठा, नास्तिक, स्वार्थी, लोभी, कामी, दुष्ट, अंहकारी विधर्मी, राष्ट्रद्रोही, नरभक्षी और अव्वल दर्जें का महाधूर्त व्यक्ति ना तो कभी सुना ही है और ना ही कभी देखा ही है ।
साला बेवडा कहीं का भंग के नशे में कुछ भी अनाप सनाप लिख गया और कुछ दिमाग से पैदल मुर्ख समाजी इस चुतिये को न जाने कौन कौन सी उपाधि देते फिरते है

वेद किसी को नहीं मानता

पुराने समय में एक असुर हुआ था जो की लोगों को वेद विरुद्ध मार्ग मेपृवत्त करता था। वह नीति को अनीति और अनीति को नीति बताता था। वह धर्म को पाखंड और पाखंड को धर्म बताता था। वह कहता था की न कोई स्वर्ग है और न ही कोई अपवर्ग है। वह खता थकी जो इन्द्रियों द्वारा अनुभूत किया जा सकता है वही सत्य है। वह ब्रम्हा को रचयिता नहीं मानता था ,वह विष्णु को पालनहार नहीं मानता था वह शिव को संहारकर्ता नहीं मानता था। वह पूजा जप तप श्राद्ध में विघ्न उत्पन्न करता था। वह कहता श्राद्ध का भोजन पितरों को मिल जाता है तो फिर यात्रा में गए हुए व्यक्ति तो अपने साथ खाद्य सामग्री ले जाने का क्या प्रयोजन ? वह परशुराम ,राम ,कृष्ण आदि को मानवमात्र कहता था और अन्य अवतारों को मूर्खों की कल्पना कहता था। उसने इसी भांति के छल प्रपंच करके उनसे कमजोर निष्ठां और दुर्बुद्धि से युक्त बहुत से व्यक्तियों को वेद मार्ग के विरुद्ध कर दिया और फिर उन वेद विरुद्ध व्यक्तियों ने अपने ही जैसे दूसरे बहुत से व्यक्तियों को भी वेद विरुद्ध कर दिया और इस भाँती वेदमार्ग से च्युत हुए वे सभी व्यक्ति अपने धन ,परिवार ,समाज औअर राज्य सहित इसी प्रकार समाप्त हो गए जैसे की दलदल में फँसी हुई गाय डूब जाती है।

श्वेत वराह कल्प के वैससवत मन्वन्तर के अट्ठाइसवें कलियीं के पांच सहस्त्र वर्ष बीतने के बाद वो असुर पुनः उत्पन्न हुआ था और इस बार उसका नाम भी छल पूर्ण था , उसका नाम दयानंद था।